हेलो दोस्तो मेरा नाम अनिल पायल है, आज मैं आपको एक ऐसी मोटिवेशनल स्टोरी बताने वाला हूं जिसे पढ़कर आप में एक जबरदस्त उत्साह आ जाएगा| आज की कहानी एक ऐसे व्यक्ति की है जिसने यह साबित कर दिया की ऊंचाइयों तक पहुंचने के लिए सिर्फ एक बड़ी सोच, उद्देश्य पूर्ति के लिए पक्का इरादा और कभी ना हार मानने वाले जज्बे की जरूरत होती है| मुसीबतें हमारे जीवन की एक सच्चाई हैं, कोई इस बात को समझ लेता है तो कोई पूरी जिंदगी इसका रोना रोता रहता है| जिंदगी के हर मोड़ पर हमारा सामना मुसीबतों से होता है, मुसीबतों के बिना जिंदगी की कल्पना भी नहीं की जा सकती है|
आज की यह कहानी एक ऐसे शख्स के बारे में है जिसके पास दोस्तों के द्वारा दिए गए मुंबई जाकर काम ढूंढने के सुझाव के अलावा कुछ नहीं था| जेब में बिना कोई पैसे के खाली पेट रहना और मुंबई के दादर स्टेशन पर सोने से ज्यादा तकलीफ दे अपने पिता और भाई के मौत के सदमे से बहार आना था| इतनी मुसीबतें एक इंसान पर एक साथ बहुत कम बार आते हैं. ऐसी परिस्थितियों से बाहर आकर आज सुदीप दत्ता ने जो सफलता हासिल की है वह आज के युवाओं के लिए बहुत ज्यादा प्रणा स्रोत है. sudip dutta ess dee
यह कहानी उन लोगों को जरूर पढ़नी चाहिए जो परिस्थितियों को दोष देकर हार मान कर बैठ जाते हैं. पश्चिम बंगाल के दुर्गापुर से संबंध रखने वाले इस बच्चे के पिता आर्मी में थे| 1971 की जंग में गोलियां लगने के बाद वह अपाहिज हो गए थे और ऐसी स्थिति में बड़ा भाई ही परिवार के लिए एक उम्मीद की किरण था| लेकिन आर्थिक तंगी के चलते परिवार बड़े भाई का इलाज नहीं करवा सका और उसकी भी मौत हो गई और उनके पिता भी अपने बड़े बेटे की मौत के सदमे में चल बसे| उसकी मां उस बच्चे के लिए भावनात्मक सहारा जरूर थी लेकिन उसके ऊपर चार भाई-बहनों की जितनी बड़ी जिम्मेदारी दी थी|
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अपने परिवार की जिम्मेदारी अब उसके ऊपर थी. उसके बाद दोस्तों के द्वारा दिया गया सुझाव तब सही साबित हुआ जब उसने ₹15 की मजदूरी का काम, सोने के लिए एक जगह मिली| सोने की जगह एक ऐसी कमरे में थी जहां पर 20 मजदूर और सोते थे. कमरा इतना छोटा था कि सोते वक्त हिलने की भी जगह नहीं होती थी| 2 साल की मजदूरी के बाद उसके जीवन में नया मोड़ तब आया जब नुकसान के चलते उसके मालिक ने फैक्ट्री बंद करने का फैसला किया, ऐसी कठिन परिस्थिति में नई नौकरी ढूंढने के बजाय इस लड़के ने फैक्ट्री को चलाने का फैसला किया| 1975 से अब तक की बचाई पूंजी और दोस्तों से उधार लेकर ₹16000 इकट्ठे कर लिए| फैक्ट्री खरीदने के लिए ₹16000 बहुत कम थे लेकिन सुदीप दत्ता ने फैक्ट्री मालिक के साथ 2 साल का मुनाफा बांटने का वादा करके किसी तरह फैक्ट्री मालिक को मना लिया|
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सुदीप उसी फैक्ट्री का मालिक बन चुका था जहां कल तक वह सिर्फ एक मजदूर था| 19 साल का सुदीप जिसके लिए खुद का पेट भरने की चुनौती थी उसने 7 अन्य मजदूरों के परिवार को चलाने की जिम्मेदारी ले ली थी| एल्युमीनियम पैकेजिंग इंडस्ट्री उस समय अपने बुरे दौर से गुजर रही थी| जिंदल और अमोनियम जैसी कुछ गिनी चुनी कंपनी अपनी आर्थिक मजबूती के आधार पर मुनाफा कमा रही थी| सुदीप यह जान गए थे कि बेहतर उत्पाद और नयापन ही उन्हें दूसरों से बेहतर साबित कर सकता है लेकिन अच्छा विकल्प होने के बावजूद जिंदल जैसी बड़ी कंपनी के सामने टिक पाना आसान बात नहीं थी| सुदीप ने वर्षों तक बड़े ग्राहकों को अपने उत्पादों की गुणवत्ता के बारे में समझाना जारी रखा और साथ ही छोटी कंपनियों के ऑर्डर के सहारे अपना बिजनेस चलाते रहे|
उनकी मेहनत तब रंग लाई जब उन्हें सन फार्मा, सिप्ला और नेसले जैसी बड़ी कंपनियों ऑर्डर मिलने शुरू हो गए. सुदीप ने सफलता का स्वाद चखा ही था लेकिन उन्हें आने वाली चुनौतियों का बिल्कुल अंदेशा नहीं था| उद्योग जगत के महारथी अनिल अग्रवाल ने एक बंद पड़ी कंपनी खरीद कर इस क्षेत्र में कदम रखा| अनिल अग्रवाल और उनका वेदांता ग्रुप विश्व की चुनिंदा बड़ी कंपनियों में से एक रहे हैं और उनके सामने टिक पाना बिल्कुल नामुमकिन लग रहा था लेकिन विदेशी कंपनी से प्रभावित न होकर सुदीप दत्ता ने अपने उत्पादों को बेहतर बनाना जारी रखा और आखिरकार वेदांत समूह को सुदीप्ता के आगे झुकना पड़ा और इंडिया फुल कंपनी को सुदीप को बेचना पड़ा|
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इसके बाद वेदांत समूह पैकेजिंग इंडस्ट्री से हमेशा के लिए बाहर हो गया था. इस उपलब्धि के बाद सुदीप ने अपनी कंपनी को तेजी से आगे बढ़ाया और फार्मा कंपनियों के बीच अपनी एक पहचान बनाई| 1998 से 2000 तक उन्होंने 20 प्रोडक्शन यूनिट स्थापित कर दिए थे. आज सुदीप की कंपनी ESS DEE ALUMINIUM अपने क्षेत्र की नंबर वन कंपनी है और साथ ही मुंबई स्टॉक एक्सचेंज और नेशनल स्टॉक एक्सचेंज की सूची में भी शामिल है| अपनी अभिनव सोच के कारण उन्होंने पैकेजिंग इंडस्ट्री का नारायण मूर्ति भी कहा जाता है| आज सुदीप दत्ता की कंपनी एसडी एलमुनियम का मार्केट कैप 1600 करोड रुपए से ज्यादा है| जीवन में बहुत कुछ हासिल करने के बाद भी सुदीप अपनी पृष्ठभूमि से जुड़े हैं. उनकी फैक्ट्री के सारे मजदूर आज भी उन्हें दादा कहकर बुलाते हैं|
उन्होंने गरीबों और जरूरतमंदों की सहायता के लिए सुदीप दता फाउंडेशन की स्थापना की| यह ग्रामीण क्षेत्र के बेरोजगार युवाओं के लिए समय-समय पर नए-नए अवसर प्रदान करता है. दोस्तों अक्सर देखा जाता है कि हम लोग अपने दुखों के लिए हमेशा आंसू बहाते रहते हैं और अपनी कमियों को ही नसीब मानकर जीवन गुजार देते हैं लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपनी कमियों को अपना नसीब नहीं बनाते हैं बल्कि अपनी मेहनत से अपनी किस्मत खुद लिखते हैं|
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दोस्तों आपको सुदीप दत्ता की यह सच्ची कहानी कैसी लगी… क्या आपको इससे कोई शिक्षा मिलती है?
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